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किसी भी चीज की अति बुरी होती है

ताईवान में रहने वाला शुमितो किसी सामान्य लड़के की ही तरह था। वह अपनी हरेक परीक्षा में 85 फीसदी से 90 फीसदी अंक लेकर आता। कुछ दिनों से वह अपने अभिभावकों से लेटेस्ट स्मार्टफोन दिलाने की जिद कर रहा था। यह देख उसके अभिभावकों ने उससे वादा किया कि अगर वह अपनी वार्षिक परीक्षाओं में स्कूल में शीर्ष रैंक में स्थान बनाने में सफल रहता है, तो वे उसे स्मार्टफोन लेकर दे देंगे। शुमितो ने कड़ी मेहनत की और स्कूल में दूसरी रैंक लेकर आया। नतीजतन उसके अभिभावकों ने उस लेटेस्ट आईफोन दे दिया। यह फोन शुमितो की जिंदगी में टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। अब वह हर समय अपने फोन से चिपके रह कुछ न कुछ सर्च किया करता। उसके माता-पिता को लगता कि वह पढ़ाई-लिखाई से संबंधित वेबसाइट्स या कंटेंट सर्च कर रहा है। लेकिन वास्तव में शुमितो को सोशल नेटवर्किंग साइट्स की लत लग चुकी थी। यहां तक कि अब आईफोन उससे एक मिनट के लिए भी अलग नहीं होता। यह बात उसके माता-पिता ने भी नोटिस की और उसकी बिगड़ती मनोदशा को देख उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। शुमितो को स्मार्टफोन से जुड़े विड्रॉअल सिम्टम्स से लंबे समय तक जूझना पड़ा। उसके पढ़ाई के कीमती दो वर्ष भी इस 'बीमारी' की भेंट चढ़ गए। जाहिर है कि यह स्थिति तीनों पर ही बेहद भारी पड़ी।

हर साल एक नई बीमारी को अपनी सूची में अपडेट करने वाले 'द डायग्नोस्टिक स्टेटिस्टिकल मैनुअल' ने इस साल भी एक नई बीमारी को शामिल किया है। यह है 'इंटरनेट एडिक्शन डिसऑर्डर'(आईएडी)। इसके कारण दिमाग में खून का थक्का जम जाने से दुनिया के विभिन्न देशों में दस लोग काल के गाल में समा चुके हैं। उनकी गलती सिर्फ इतनी थी कि वे दिन भर में 18 घंटे तक कंप्यूटर या स्मार्टफोन से चिपके रहते थे। चीन, कोरिया और ताईवान ने इसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य के लिए गंभीर संकट वाली बीमारी में शुमार किया है। इन तीन देशों में लाखों लोग वेब की असीमित दुनिया के लती पाए गए हैं। खासकर गेमिंग, सोशल मीडिया और वर्चुअल रियलिटी ने इन्हें किसी नशे की तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया है।

यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड ने 'अनप्लग्ड' नाम से करीब 200 स्टूडेंट्स पर एक सर्वेक्षण किया। सभी को एक दिन के लिए कंप्यूटर या स्मार्टफोन से अलग रखा गया। उस पूरे दिन उनसे अपने मनोभावों को रिकॉर्ड करने को कहा गया। परिणाम चौंकाने वाले आए। एक ने सोशल मीडिया को 'ड्रग्स' की तरह बताया, तो दूसरे ने स्मार्टफोन के बगैर खुद को गंभीर रूप से 'बीमार' बताया। नई पीढ़ी खासकर अमेरिकी बच्चों में 'इंटरनेट की लत' को लेकर हालिया लांच किताब 'डिसऑर्डर' में कहा गया है, 'ऐसा प्रतीत होता है कि हम तकनीक का चयन करते हैं। लेकिन वास्तव में हम खुद उसकी असीमित संभावनाओं और क्षमता के जाल में फंसते जाते हैं। फोन पर रिंग के तौर पर बजने वाली प्रत्येक आवाज हमें प्रोफेशनल अवसर की तरह लगती है। धीरे-धीरे फोन की 'बीप' या 'रिंगटोन' किसी लत की तरह हमारे मस्तिष्क में पैठ जाती है। ऐसी आवाज सुनाई न पडऩे पर हमें खालीपन समेत कुछ छूट जाने का अहसास होता है।' यही वजह कि लोग धीरे-धीरे स्मार्टफोन जैसे गैजेट्स के लती बन जाते हैं।


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मानवतावादी और उनका मानवधर्म

 

मनुष्य का मूल स्वभाव धार्मिक होता है| कोई भी मनुष्य धर्म से पृथक होकर नहीं रह सकता| मनुष्य के अन्दर आत्मा का वास होता है जो की परमात्मा का अंश होती है| फिर मनुष्य धर्म और ईश्वर से अलग कैसे हो सकता है| मनुष्य का मूल अध्यात्म है और रहेगा| इस दुनिया की कोई भी चीज चाहे वो सजीव हो या निर्जीव, अपनी प्रकृति के विपरीत आचरण करके ज्यादा दिनों तक अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकती| जो मनुष्य अपनी मूल प्रकृति के विपरीत आचरण शुरू कर देते हैं उनका अंत हो जाता है| ये अंत भौतिक नहीं बल्कि आतंरिक होता है| मनुष्य अपनी काया से तो जीवित दिखता है परन्तु उसकी मानवता मर जाती है| वो पशु से भी बदतर हो जाता है|
कुछ लोग जो स्वयं भी अपनी मूल धारा के विपरीत गमन करते हैं और अपनी कुटिल चालों और भरमाने वाली भाषा के प्रयोग से अन्य लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए उकसाते हैं, कभी भी मानव नहीं हो सकते| खुद को वो चाहे कितना भी "मानवतावादी" बताते रहें और कहते रहें की वो अपने "मानवधर्म" का पालन कर रहे हैं, ये कदापि सत्य नहीं होता| ऐसे "मानवतावादियों" ने ही आज धरती को नर्क बना के रख दिया है| जहाँ धर्म का लोप हो जाता है वहाँ अधर्म अपना साम्राज्य स्थापित कर लेता है| अधर्म में न कोई नैतिकता है न कोई मर्यादा| उसमें सिर्फ और सिर्फ भोगलिप्सा और कभी न खत्म होने वाली वासनाएं हैं| ये वासनाएं न तो मनुष्य को जीने देती हैं और न ही मरने देती हैं| धर्म को अपनाये बिना इनका त्याग असंभव है|
मानवता के नाम पर चलनेवाले गोरखधंधे में सब कुछ होता है| दानवता का नंगा नाच देखना हो तो उन लोगों को देखिये जिन्होंने धर्म को त्याग दिया है| ऐसे लोग खुलेआम आधुनिकता की अंधी दौड़ का समर्थन करते मिलेंगे| उनके लिए प्रेम महज एक वासनापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं| शीलता को छोड़ के भौंडेपन का प्रचार भी यही मानवतावादी करते हैं| मर्यादाहीनता को निजी मामला बताना हो अथवा हिंसा के प्रति दोहरा रवैया, सब इन्हीं कथित मानवतावादियों की देन है| नशीली वस्तुओं यथा शराब, ड्रग्स आदि इनके लिए मनोरंजन के साधन मात्र हैं| दूसरों को स्वार्थ से दूर रहने की शिक्षा देने वाले ये लोग स्वार्थ में आकंठ डूबे रहते हैं| आज अगर छीनने की भावना बढ़ी है तो इसका कारण यही मानवतावादी हैं जो अपनेआप को सफलता के उस शिखर पर देखना चाहते हैं जहाँ कोई और न पहुंचा हो|
धर्म की गलत व्याख्या करके ये अपनेआप को सबसे बड़ा बुद्धिमान समझ लेते हैं| दो-चार घटिया किस्म की किताबें पढ़ के ये खुद को दार्शनिक समझने लगते हैं| सत्य न कभी पराजित हुआ है और न कभी होगा| धर्म ही जीवन का आधार है| मनुष्य को मोहमाया के बंधनों से कोई मुक्त कर सकता है तो वो केवल धर्म है| सच्चाई तो ये है की "मानवता" की शिक्षा भी मनुष्य को धर्म ने ही दी है| धर्म ने ही मनुष्य को जीवमात्र से प्रेम करना सिखाया है| ईर्ष्या, द्वेष जैसे दुर्गुणों के लिए धर्म में कोई स्थान नहीं है| इन चीजों से धर्म को यही "मानवतावादी" जोड़ते हैं और लोगों को भरमा के अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं|
धर्म तो जीवन है| शाश्वत है, सत्य है| इसको नकारना अपनी अल्पबुद्धि का परिचय देने से अधिक और कुछ भी नहीं है| कोई स्वयं को ही नकारे तो इसे और क्या कहा जायेगा| संसार में आज अगर अपराध है तो उसका कारण लोभ है, वासना है| दुनिया में जो सिर्फ एक आगे निकलने की भावना बढ़ी है उसका कारण मनुष्य की अनंत इच्छाएं हैं| मनुष्य आज स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पा रहा है तो इसकी एकमात्र वजह मनुष्य का धर्म से दूर होना है| अपने मन पर नियंत्रण अत्यंत जरूरी है| मानव और दानव में यही अंतर होता है| दानव अपने मन का गुलाम हो उसके अधीन हो जाता है और मानव अपने मन को अपने अधीन रखता है| अब ये निर्णय तो मानव को ही करना होगा की वो मानव बनना चाहता है या दानव|
 
 
इमोशनल अत्याचार है घातक
साल भर पहले एक फिल्म आई थी -प्यार का पंचनामा। इसके एक दृश्य में नायक अपने ऑफिस के टॉयलेट में छिपकर किसी दूसरी कंपनी के लिए टेलीफोनिक इंटरव्यू दे रहा था। इसी बीच उसकी गर्लफ्रेंड ने बार-बार फोन करके उसे परेशान कर दिया। जब लडके ने उसका कॉल रिसीव किया तो उधर से आवाज आई, फिनायल पीने से कुछ होता तो नहीं? लडके ने घबराकर पूछा, तुम ऐसी बातें क्यों कर रही हो?, वो मैंने फिनायल..। यह सुनते ही लडका इंटरव्यू अधूरा छोड कर उसे बचाने जाता है। लडके को देखकर वह बडी मासूमियत सेकहती है, सो स्वीट ऑफ यू, तुम आ गए। सॉरी जानू..मैं तो सिर्फ यह देखना चाहती थी कि तुम्हें मेरी फिक्र है या नहीं? यह सुनने के बाद लडके की क्या प्रतिक्रिया रही होगी, इसका अंदाजा तो आप लगा ही सकते हैं।


क्यों होता है ऐसा

यह तो बात हुई फिल्म की, लेकिन हमारी जिंदगी भी फिल्मों से ज्यादा अलग नहीं होती। हमारे आसपास कई ऐसे लोग मौजूद होते हैं, जो दूसरों पर इमोशनल अत्याचार करने में माहिर होते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में ऐसे लोगों को इमोशनल पैरासाइट या इमोशनल वैंपाइर कहा जाता है। इन्हें रोने के लिए हमेशा किसी कंधे की तलाश रहती है। यह एक तरह का मेंटल मेकैनिज्म है। असुरक्षा की भावना से ग्रस्त ऐसे लोग किसी भी रिश्ते में ऐसा व्यवहार करते हैं। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. भागरानी कालरा कहती हैं, बचपन में माता-पिता का अतिशय संरक्षण या प्यार की कमी। दोनों ही स्थितियां बच्चे के व्यक्तित्व को कमजोर बनाती हैं। बाद में ऐसे लोगों का आत्मविश्वास इतना कमजोर पड जाता है कि ये अपने हर काम में दूसरों की मदद लेने के आदी हो जाते हैं, लेकिन इनमें जिम्मेदारी की भावना जरा भी नहीं होती।


कैसे करें पहचान

1. अपनों को पर्सनल स्पेस न देना

2. मतलब निकल जाने पर पल्ला झाड लेना

3. अपनी बातों से करीबी लोगों के मन में अपराध बोध की भावना को उकसाना

4. आत्मकेंद्रित होना

5. अपनी परेशानियों को दूसरों के सामने बढा-चढाकर पेश करना

6. हमेशा सहानुभूति की इच्छा रखना

7. अपनी किसी भी नाकामी के लिए दूसरों को दोषी ठहराना

8. हमेशा यह शिकायत करना कि कोई मुझे समझने की कोशिश नहीं करता।


अनजाने में होता है ऐसा

ऐसी समस्या से ग्रस्त लोग अपने व्यवहार से अनजान होते हैं, उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं होता कि उनके ऐसे रवैये से दूसरों को कितनी परेशानी होती है। किसी भी रिश्ते में ये दूसरों से बहुत कुछ हासिल करना चाहते हैं, पर ख्ाुद कुछ भी देने को तैयार नहीं होते, लेकिन वास्तव में इन्हें अपनों के सहयोग की जरूरत होती है।


संभलकर संभालें इन्हें

1. इन्हें खुद अपना काम करने के लिए प्रेरित करें, ताकि ये आत्मनिर्भर बनें।

2. इनकी बातें ध्यान से सुनें क्योंकि इन्हें अच्छे श्रोता की तलाश रहती है।

3. अगर परिवार में कोई ऐसा सदस्य हो तो सभी को मिलकर उसे इस समस्या से उबारने की कोशिश करनी चाहिए।

4. दांपत्य जीवन में अगर कोई एक व्यक्ति ऐसा हो तो दूसरे पर भी नकारात्मक असर पडता है। समस्या ज्यादा गंभीर रूप धारण कर ले तो पति-पत्नी दोनों को ही काउंसलिंग की जरूरत होती है।

5. अगर ऐसे लोगों के साथ संयत व्यवहार रखा जाए तो इस समस्या को काफी हद तक दूर किया जा सकता है।

 
 
 
 

 

ऊर्जा बढ़ाएं चार स्टेप्स


खुद को तरोताजा करने के लिए चाय, कॉफी की चुस्की या झपकी लेने की जरूरत नहीं है। आप योग से खुद को चुस्त-दुरुस्त कर सकते हैं। यह साबित हो चुका है कि योग से न सिर्फ थकान कम होती है, बल्कि कार्टिसोल हार्मोन भी संतुलित होता है, जिसकी कमी से हमारी एनर्जी खत्म हो जाती है। नीचे दिए गए चार स्टेप करके आप अपनी एनर्जी वापस पा सकते हैं। आप चारों स्टेप की हर पोजीशन में 10 बार गहरी सांस जरूर लें। दूसरी साइड से भी इन पोजीशन को दोहराएं। दिन मंे तीन बार दोनों साइड से इन स्टेप को करें।

1.पुश-अप की पोजीशन में आएं और कमर वाले हिस्से को
ऊपर उठाएं। पांच बार लंबी सांस लें और दाएं पैर को जितना हो सके, उतना ऊपर तक ले जाएं। धीरे-धीरे बाएं हाथ को कोहनी तक फर्श पर लाएं और इसके बाद दोनों हथेली को पूरी तरह फर्श पर टिका लें।

2.फ्दोनों हाथ सीधे करके सामने की तरफ इस तरह झुकें कि 90 डिग्री का कोण बन जाए। दाएं पैर को ऐसे रखें कि वो दोनों हाथों के बीच में हो। बायां पैर हाथों की सीध में उठाकर सीधा करें, इससे शरीर का सारा वजन अपने आप दाएं पैर पर आ जाएगा। दोनों हाथ और कमर का हिस्सा सीधे और जमीन के समानांतर होने चाहिए।

3.दोनों हाथ और पैर जमीन पर टिकाएं। कमर का हिस्सा बाईं तरफ घुमाएं और बायां हाथ छत की तरफ उठा लें। बायां पैर पीछे की तरफ मोड़ लें और बाएं हाथ से उसे कमर के पीछे से पकड़ें। इस पोजीशन में आपका दायां हाथ और दायां पैर जमीन पर टिका रहना चाहिए।

4.खुद को वापस उसी पोजीशन मंे ले आएं, जो आपने तीसरी पोजीशन की शुरुआत में की थी। अपनी मुख्य मांसपेशियों का इस्तेमाल करते हुए खड़े हो जाएं। बायां तलवा दाईं जांघ पर रखें और दोनों हाथ सीधे ऊपर उठा लें।


नींद हमेशा आरामदायक नहीं होती


बच्चे लगातार कई घंटे तक खेलते हैं तो उन्हें थकान नहीं होती। लेकिन शरारत करने पर स्कूल में टीचर ने अगर खड़े रहने के लिए कह दिया तो समझ में आ जाता है कि सीधे खड़े रहना सजा क्यों है। बचपन ही नहीं, लगभग हर उम्र में काफी देर तक लगातार खड़े रहने वालों का हाल कुछ ऐसा ही होता है।
 
दरअसल हमें खड़े रहना, बाकी सभी चीजों से ज्यादा थकाता है। आपने भी लोगों को कहते सुना होगा कि 'मैं कई किलोमीटर पैदल चल सकता हूं, लेकिन सिर्फ एक घंटे खड़े होने से थक जाता हूं।' खड़े रहने से जो थकान होती है, उसकी वजह शारीरिक ही नहीं, मानसिक भी है। बगैर कोई
काम किए खड़े होने की स्थिति में हम बोरियत के शिकार होते हैं। हमारे दिमाग का सारा फोकस सीधे खड़े होने पर रहता है।
पहला कारण
 
खड़े रहते हुए आप कुछ नहीं कर रहे, इसके बावजूद ऐसा लगता है कि यह आपको पैदल चलने से ज्यादा थका रहा है। इससे जुड़ी एक अवधारणा 'गैलरी फीट' है, जिसमें बताया गया है कि किसी आर्ट गैलरी या म्यूजियम में चलना, वॉक करने से कहीं ज्यादा थकाने वाली कवायद होती है। ऐसा क्यों होता है? यहां इसके कुछ जवाब दिए जा रहे हैं, जो कहीं न कहीं एक-दूसरे से जुड़े मालूम होते हैं।
खड़े रहना आराम करना नहीं: जब हम सीधे खड़े होते हैं, तो हमारा शरीर धीरे-धीरे आगे-पीछे होता रहता है और दबाव पड़ता है टखने पर। इसलिए हमें खड़े रहने की प्रक्रिया के दौरान अपनी मांसपेशियों में तालमेल बैठाना पड़ता है।
फ्सारा दबाव कुछ ही मांसपेशियों पर: जब हम खड़े होते हैं, तो कुछ मांसपेशियों पर ही ज्यादा वक्त तक दबाव बनता है। इसी वजह से पिंडली की मांसपेशियों में थकान होना लाजिमी है। पैदल चलने की प्रक्रिया में कई मांसपेशियों की भूमिका रहती है, ऐसे में दबाव बंट जाता है।
चलने में आराम:जब हम चलते हैं, तो एक वक्त में एक पैर का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में दूसरा पैर और उसकी मांसपेशियों को आराम मिलता रहता है। पैर को जितना आराम मिल रहा है, वह भले कम हो, लेकिन कुल मिला कर यह काफी होता है।
 
दूसरा कारण
खड़े होने के दौरान दिल इतना सक्षम नहीं होता कि टखनों, पिंडलियों और पांव से वापस पर्याप्त खून पंप कर सके, इसलिए इसमें पुराना खून एकत्र होता रहता है। ऑक्सीजन, न्यूट्रिएंट देने वाला और टॉक्सिन हटाने वाला ताजा खून न होने की वजह से मांसपेशियां दर्द महसूस करने लगती हैं। वजह सीधी-सी है। ज्यादा काम और कम भोजन का सीधा मतलब है कि आपकी मांसपेशियां तकलीफ महसूस करेंगी। जब आप चलते हैं तो आपकी मांसपेशियों के लिए इस बढ़े हुए काम की वजह से यह आपके हार्ट की तरफ खून का प्रवाह बना रहता है और मांसपेशियों को हर हाल में ताजा खून मिलता रहता है।
जब आप अपना कामकाजी दिन पूरा होने के बाद पैरों पर गौर करेंगे, तो देखेंगे कि उनमें सूजन आ गई है या फिर जूते कसे हुए लग रहे हैं। इससे निपटने का काम पैर की कुछ नसें करती हैं, जो दिल तक जाती है।
 
तीसरा कारण
खड़े होने पर जो थकान होती है, उसका ताल्लुक दिमाग से भी है। फर्ज कीजिए कि आप खड़े होकर रोजमर्रा का सामान खरीद रहे हैं। ऐसे में आपका फोकस सिर्फ खड़े रहने पर होता है। मुमकिन है कि बीच-बीच में आपका ध्यान सामान उठाने की ओर भी जाए, लेकिन ज्यादातर समय तब भी खड़े होने पर खर्च हो रहा है। कुछ हद तक आप बोर भी हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में आपका शरीर पैरों से आने वाले उन संकेतों को ज्यादा देर तक नजरअंदाज नहीं कर सकता कि वे थके हुए हैं और अब बैठना चाहिए। इसकी वजह से आपका ध्यान पैरों की तरफ जाता है और दर्द ज्यादा महसूस होने लगता है। अब इसकी तुलना दौड़ने या जॉगिंग से कीजिए। आपके दिमाग को यह पता होता है कि सड़कों पर गड्ढे, अवरोध, गाड़ियां और दूसरे लोग भी होंगे। आपके मानसपटल पर इन सभी चीजों की आकृतियां खिंची रहती हैं। आपके कान जो सुन रहे हैं, आपका ध्यान उस ओर भी जाता है। आप पैरों से मिलने वाली प्रतिक्रिया का इस्तेमाल करते हैं, ताकि हर कदम के साथ आने वाली छोटी-मोटी दिक्कत दूर की जा सके। जबकि इस बात से ध्यान हट जाता है कि शुरुआत से ही आप अपने पैरों को थका रहे हैं। आपके पैरों में केवल तभी भीषण दर्द होगा, जब थकान बहुत ज्यादा हो। क्योंकि उस समय आपका दिमाग आसपास के माहौल और चीजों पर ध्यान न देकर दर्द पर ध्यान देगा। इसमें काफी वक्त लगता है और आपकी काफी जॉगिंग हो चुकी होती है। इसके अलावा जब आप दौड़ते हैं, तो शरीर में एड्रेनलिन नामक रस उत्पन्न होता है, जो आपको ज्यादा ऑक्सीजन और पैरों को सपोर्ट मुहैया कराता है। दर्द के सिग्नल का असर भी खत्म करता है।

सांवले हैं तो ज्यादा विटामिन 'डी' लें

विटामिन 'डी'असल में विटामिन नहीं है। यह एक हार्मोन है। जब सूरज की रोशनी हमारी त्वचा पर पड़ती है, तब हमारा शरीर इस हार्मोन को बनाता है। फिर यह कोलेस्ट्रॉल जैसे पदार्थ में बदलने के बाद आखिरकार विटामिन बन जाता है। इसकी खास पहचान कैल्शियम और फॉस्फोरस को पचाने में मददगार होने की वजह से है। इसी वजह से हड्डियों को स्वस्थ रखने के लिए विटामिन 'डी' जरूरी है। नई रिसर्च में कहा जा रहा है कि विटामिन 'डी' ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने, कैंसर से लड़ने और रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ाने में मददगार है। नवंबर 2010 में अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिसिन ने विशेषज्ञों की एक सभा में शरीर के लिए जरूरी विटामिन 'डी' की मात्रा को लेकर  अपनी सिफारिशें जारी की हैं जिसे इंटरनेशनल यूनिट्स (आईयू) में मापा जाता है। इन सिफारिशों के मुताबिक 1-70 साल की उम्र तक के लोगों के लिए 600 आईयू विटामिन 'डी' पर्याप्त है। 70 साल से ज्यादा उम्र के लोगों के लिए यह 800 आईयू होना चाहिए। पहले बताए गए 400 आईयू विटामिन 'डी' की तुलना में यह बहुत ज्यादा है। इस वजह से उम्मीद की जा रही है कि अक्सर सामने आने वाली विटामिन 'डी' की कमी संबंधी शिकायतें अब दूर होंगी। लेकिन सूरज की रोशनी के जरिए विटामिन 'डी' हासिल कर पाना कई लोगों के लिए चुनौती भरा काम है। जिन लोगों के शरीर में आमतौर पर विटामिन 'डी' की मात्रा कम पाई जाती है, उनमें शामिल हैं:

-जिनकी त्वचा का रंग गहरा होता है
-जो लोग मोटापे के शिकार होते हैं
-घर से बाहर धूप में कम निकलते हैं
-सनस्क्रीन लोशन का इस्तेमाल करते हैं
-धूप में निकलते वक्त उनका पूरा शरीर कपड़ों से ढंका होता है
-ऐसे लोगों को पेट में जलन, डायरिया और पाचन संबंधी बीमारियां होती हैं। इस वजह से इनके लिए विटामिन 'डी' को पचाना मुश्किल हो जाता है।

भोजन शरीर के लिए जरूरी विटामिन हासिल करने का सबसे अच्छा तरीका है, लेकिन विटामिन 'डी' के मामले में ऐसा नहीं है। यह सामन, टुना और सार्डीन मछलियों और अतिरिक्त पोषक तत्वों से तैयार किए गए आहार जैसी कुछ गिनी-चुनी चीजों में ही मिलता है। इनमें एक बार के आहार में 100 आईयू विटामिन 'डी' मिल जाता है। विटामिन 'डी' का सही मात्रा में सुरक्षित है और यह सेहत के लिए अच्छा भी है। ऐसे में विटामिन 'डी' प्राप्त करने के लिए इन्हें सप्लिमेंट्स यानी कैप्सूल के रूप में लेना अच्छा है।